नालंदा के इन 5 गांव में होली के दिन नहीं जलते चूल्हे, जानें अनोखी वजह

बिहारशरीफ (नालंदा दर्पण)। नालंदा जिले के पांच गांवों में होली का उत्सव कुछ अलग ही अंदाज में मनाया जाता है। इन गांवों में होली के दिन न तो चूल्हे जलते हैं, न ही फूहड़ गीतों की गूंज होती है। सन् 1983 से चली आ रही एक अनूठी परंपरा के तहत यहां के लोग भक्ति और आध्यात्मिकता का विशेष रंग खेलते हैं।

पतुआना, बासवन बिगहा, ढीबरापर, नकटपुरा और डेढ़धारा जैसे गांवों में होलिका दहन की शाम से ही 24 घंटे का अखंड कीर्तन शुरू हो जाता है। इस दौरान ग्रामीण हरे राम, हरे कृष्ण का जाप करते हुए अपने दिन व्यतीत करते हैं।

होली के दिन यहां किसी भी घर में खाना नहीं पकता। लोग एक दिन पहले मीठा भोजन तैयार कर लेते हैं और कीर्तन के दौरान केवल वही भोजन करते हैं। इस पूरे दिन यहां नमक का भी सेवन वर्जित होता है और लोग शुद्ध शाकाहार का पालन करते हैं।

स्थानीय ग्रामीणों के अनुसार इस परंपरा की शुरुआत 1983 में एक सिद्ध पुरुष संत बाबा के आदेश से हुई थी। बाबा ने सुझाव दिया था कि होली के दिन भगवान का स्मरण करने से गांव में शांति और सद्भाव बना रहेगा। पहले होली के दौरान अक्सर गांवों में झगड़े हो जाया करते थे। जिसे रोकने के लिए यह परंपरा शुरू की गई। तब से यह परंपरा यहां के लोगों की दिनचर्या का हिस्सा बन गई है।

इन गांवों में होली के दिन चूल्हे न जलाने और अखंड कीर्तन के बाद, होली के अगले दिन यानी बसिऔरा के दिन लोग रंगों का त्योहार पूरे उत्साह के साथ मनाते हैं। कीर्तन समाप्त होने के बाद यहां के लोग रंग-गुलाल में सराबोर हो जाते हैं और त्योहार का आनंद लेते हैं।

ग्रामीणों का कहना है कि इस परंपरा ने उन्हें एकता और शांति का मार्ग दिखाया है। जब आज के समय में कई जगहों पर होली के नाम पर अश्लीलता और नशे का बोलबाला है। तब इन गांवों की यह परंपरा एक सकारात्मक संदेश देती है। यह दिखाती है कि त्योहार मनाने के लिए संयम, भक्ति और अनुशासन भी जरूरी हैं।

नालंदा के इन पांच गांवों की यह अनूठी परंपरा न केवल धार्मिक महत्व रखती है, बल्कि यह समाज में शांति और सद्भाव स्थापित करने का एक प्रभावी माध्यम भी बन गई है। पिछले 42 वर्षों से चली आ रही यह परंपरा आने वाली पीढ़ियों के लिए भी प्रेरणा का स्रोत बनी हुई है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *