स्क्रीन के पीछे खो रहा है बचपन :डॉ.सरिता शिवांगी

सवाल सिर्फ इतना है—अपने बच्चों के बचपन को कैसे बचाते हैं हम ?

क्लिनिकल साइकोलोजिस्ट,पटना

आज की डिजिटल दुनिया में, मोबाइल फोन सिर्फ एक ज़रूरत नहीं, बल्कि एक आदत बन चुकी हैं. यह आदत, खासकर किशोरों के लिए, एक साइलेंट एपिडेमिक के रूप में उभर रही है. यह सिर्फ स्क्रीन टाइम का सवाल नहीं, बल्कि एक पूरी पीढ़ी के भावनात्मक और मानसिक विकास का मुद्दा है.

एक 21 वर्षीय आदित्य की कहानी लेते हैं.वह हर सुबह अपने फोन के अलार्म से उठता है, पर उसका “गुड मॉर्निंग” पहले उसकी इंस्टा स्टोरीज देखकर होता है, न कि घरवालों से बात करके. यह एक इंसान की नहीं, पूरी जेनरेशन की कहानी बन चुकी है. वर्चुअल दुनिया इतनी ब्राइट लगती है कि रियल दुनिया का रंग फीका हो रहा है.

  • मोबाइल एडिक्शन का मूल कारण केवल टेक्नोलॉजी नहीं, बल्कि हमारे समाज के बदलते पैटर्न हैं:
    1. FOMO सिंड्रोम: “फियर ऑफ मिसिंग आउट” यानी कुछ छूट जाने का डर, एक ऐसी मनोवैज्ञानिक स्थिति है जो किशोरों को हर वक्त सोशल मीडिया चेक करने के लिए मजबूर करती है.
    2. Validation की भूख: सोशल मीडिया के लाइक्स और कमेंट्स, आत्मसम्मान के नए मापदंड बन गए हैं.हर नोटिफिकेशन एक डोपामाइन किक देता है, जो उन्हें इस चक्र में फंसा देता है.
    3. माता-पिता का विकल्प: व्यस्त माता-पिता के लिए मोबाइल एक डिजिटल बेबीसिटर बन गया है.बिना सोचे-समझे बचपन स्क्रीन के हवाले हो गया है.
    4. वास्तविक जुड़ाव की कमी: साथियों के साथ वास्तविक बातचीत की कमी का खालीपन मोबाइल भर रहा है. वर्चुअल चैट्स ने फिजिकल गैदरिंग्स को रिप्लेस कर दिया है.
  • किशोरों पर मोबाइल एडिक्शन के मानसिक और शारीरिक प्रभाव गहराई से महसूस किए जा रहे हैं:
  • मानसिक स्वास्थ्य पर असर: चिंता, डिप्रेशन और आत्मसम्मान की कमी जैसे मुद्दे बढ़ रहे हैं.
  • नींद में बाधा: लेट-नाइट स्क्रोलिंग और गेमिंग मेलाटोनिन प्रोडक्शन को डिस्टर्ब करती है, जिससे ग्रोथ और फोकस दोनों प्रभावित होते हैं.
  • शैक्षिक प्रदर्शन में गिरावट: मोबाइल डिस्टर्बेंस का सीधा असर एकाग्रता और सीखने की क्षमता पर पड़ता है.
  • क्रिएटिविटी की कमी: गेम्स और वीडियोज़ कंज्यूम करने में उनकी कल्पनाशक्ति और समस्या-समाधान कौशल कमजोर हो रहे हैं.

नए समाधान की ज़रूरत
आम समाधान जैसे स्क्रीन टाइम लिमिट करना या माता-पिता की निगरानी असरदार हैं, लेकिन अब नए और अनोखे तरीकों की ज़रूरत है:

  1. टेक-फ्री ज़ोन्स: हर घर में कुछ जगह जैसे डाइनिंग टेबल और बेडरूम को “नो-मोबाइल ज़ोन” घोषित करें.
  2. वास्तविक दुनिया की हॉबीज़: आर्ट, स्पोर्ट्स, या गार्डनिंग जैसी गतिविधियों को बढ़ावा दें जो उनके हाथों और दिमाग दोनों को व्यस्त रखें.
  3. डिजिटल डिटॉक्स चैलेंज: साप्ताहिक डिटॉक्स चैलेंज रखें जिसमें पूरी फैमिली हिस्सा ले और एक-दूसरे के साथ क्वालिटी टाइम बिताएं.
  4. भावनात्मक जागरूकता: किशोरों को आत्मसम्मान और भावनात्मक स्थिरता सिखाने के लिए वर्कशॉप्स या माइंडफुलनेस प्रैक्टिसेस शुरू करें.
  5. माता-पिता की भूमिका: बच्चों से अपेक्षा करने के बजाय, माता-पिता पहले अपना स्क्रीन टाइम लिमिट करके एक उदाहरण पेश करें.

नया बचपन: एक बैलेंस की तलाश
मोबाइल एडिक्शन एक आधुनिक समस्या है, लेकिन इसका समाधान पुरानी मान्यताओं में है—रिश्ते, रचनात्मकता और माइंडफुलनेस. किशोरों को यह सिखाना होगा कि टेक्नोलॉजी उनके नियंत्रण में है, न कि वे टेक्नोलॉजी के गुलाम हैं.
स्क्रीन के पीछे की दुनिया जितनी भी Shiny हो, असली दुनिया का रंग उससे कहीं ज़्यादा Vibrant है. सवाल सिर्फ इतना है—अपने बच्चों के बचपन को कैसे बचाते हैं हम ?

मोबाइल एडिक्शन से जुड़े कुछ लक्षणः 

  • अकेले होने पर बोर होकर फ़ोन का इस्तेमाल करना.
  • रात में फ़ोन चेक करने के लिए कई बार उठना.
  • फ़ोन से दूर होने पर गुस्सा या परेशान होना.
  • नौकरी या पढ़ाई के दौरान फ़ोन देखना.
  • घरवालों का फ़ोन को लेकर चिंतित होना.

pncdesk

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