राजगीर राष्ट्रीय कुर्मी चेतना शिविर: तिलक, दहेज और मृत्युभोज का पूर्ण बहिष्कार का आह्वान

राजगीर (नालंदा दर्पण)। ज्ञान, अध्यात्म और आस्था की तपोभूमि राजगीर में आयोजित राष्ट्रीय कुर्मी चेतना शिविर का दो दिवसीय कार्यक्रम संपन्न हो गया। इस समागम में समाज को एकजुट करने, उपजातियों के बीच समरसता स्थापित करने तथा शैक्षणिक, आर्थिक और व्यवसायिक स्तर पर समाज को सशक्त बनाने के उद्देश्य से 28 महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किए गए।

इस शिविर में तिलक, दहेज और मृत्युभोज जैसी कुप्रथाओं के पूर्ण बहिष्कार का आह्वान किया गया। वक्ताओं ने समाज को इस दिशा में ठोस कदम उठाने और इन प्रथाओं को त्यागने के लिए प्रेरित किया और कहा कि यह अनावश्यक सामाजिक बंधन आर्थिक रूप से समाज को कमजोर कर रहे हैं और इन्हें समाप्त करने से कुर्मी समाज का संपूर्ण विकास होगा।

वहीं वक्ताओं ने ब्रिटिश शासनकाल के दौरान कुर्मी समाज के साथ हुए अन्याय को याद करते हुए बताया कि उस दौर में अंग्रेजों ने कुर्मी समाज को नौकरियों से वंचित कर दिया था। इसके विरोध में महासभा की स्थापना हुई। उस समय कुर्मी समाज की आबादी मात्र 32 लाख थी, जो अब बढ़कर 34 करोड़ हो गई है। ऐसे में समाज को नई नीतियों के अनुरूप खुद को ढालने और संगठनात्मक शक्ति बढ़ाने की आवश्यकता है।

इस शिविर में सभी राज्यों की राजधानियों में पटेल छात्रावास के निर्माण की मांग उठाई गई। ताकि कुर्मी समाज के छात्र उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकें। इसके अलावा व्यवसायिक क्षेत्र में कदम बढ़ाने और नौकरी पर निर्भरता कम करने पर भी जोर दिया गया। वक्ताओं का कहना था कि नौकरी केवल नौकरी देती है। लेकिन व्यवसाय मालिक बनाता है। इसलिए युवाओं को रोजगार सृजन करने और उद्यमशीलता को बढ़ावा देने की दिशा में कदम बढ़ाने चाहिए।

वहीं समाज में धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से कुर्मी पुरोहितों को तैयार करने की योजना पर भी चर्चा हुई। वक्ताओं ने बताया कि असम, उड़ीसा, महाराष्ट्र, कर्नाटक और दिल्ली में बड़ी संख्या में कुर्मी पुरोहित हैं। लेकिन अन्य राज्यों में इसकी आवश्यकता है। समाज को अपनी परंपराओं को मजबूत करने और जन्म से मृत्यु तक अपने पुरोहितों से ही संस्कार करवाने के लिए प्रेरित किया गया।

इस शिविर में इस बात पर भी जोर दिया गया कि कुर्मी समाज की सभी उपजातियों को एकजुट होकर एक पहचान के साथ आगे बढ़ना चाहिए। वक्ताओं ने कहा कि पहले कुर्मी समाज की पहचान विद्यालय और पुस्तकालयों से होती थी। लेकिन अब यह प्रवृत्ति कमजोर हो गई है। इसे पुनर्जीवित करने के लिए शिक्षा और ज्ञान पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है।

शिविर में यह भी चिंता जताई गई कि 1951 के बाद कई राज्यों में कुर्मी समाज को जनगणना में पिछड़ी जातियों की सूची में शामिल नहीं किया गया। वक्ताओं ने सरकार से मांग की कि समाज की वास्तविक स्थिति को ध्यान में रखते हुए जनगणना में इसे उचित स्थान दिया जाए।

कुल मिलाकर राष्ट्रीय कुर्मी चेतना शिविर समाज को एक नई दिशा देने और आर्थिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक सशक्तिकरण की ओर बढ़ाने का एक महत्वपूर्ण मंच साबित हुआ। शिविर के दौरान पारित प्रस्तावों को जमीनी स्तर पर लागू करने के लिए कार्ययोजना बनाने की जरूरत बताई गई। वक्ताओं ने सरदार वल्लभभाई पटेल की नीतियों पर चलते हुए समाज को संगठित और मजबूत बनाने का संकल्प लिया।

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