इन्द्र द्वारा शिव की शक्ति का वर्णन और ब्रह्मा की उत्पत्ति…(भाग 1)- पं० भरत उपाध्याय

इन्द्र बोले – भगवान पितामह ने हजारों वर्षों के अन्त में प्रातः काल में पूर्ववत् सृष्टि की रचना की। द्विपरार्ध के अन्त में जब पृथ्वी जल में डूबी थी, जल अग्नि में लीन था, अग्नि वायु में, वायु आकाश में, सभी इन्द्रियाँ और तन्मात्रा सहित आकाश अहंकार में, अहंकार महत तत्व में, महत तत्व अव्यक्त में लीन था। अव्यक्त भी अपने गुणों के साथ शिव में लीन था। तब सृष्टि की उत्पत्ति कमल योनि ब्रह्मा ने की तथा मानस पुत्रों को उत्पन्न किया। शिव की प्रसन्नता के लिए उन्होंने बहुत ही कठोर तप किया। तब ब्रह्मा के ललाट को भेदन करके स्त्री पुरुष दोनों रूप में शिव उत्पन्न हुए और ब्रह्मा से बोले-कि मैं तुम्हारा पुत्र हूँ। पुत्र महादेव अर्धनारीश्वर रूप हुए जो ब्रह्मा सहित जगत को दहन करने लगे और अर्थ मात्रामय भगवती कल्याणी परमेश्वरी हुई जिसको शिव ने जगत की वृद्धि के लिए उत्पन्न किया। उससे हरि और ब्रह्मा आदि की उत्पत्ति की। इसलिए ब्रह्मा और विष्णु महादेवी के अंश से उत्पन्न हुए।
नारायण भगवान ने भी अपने शरीर के दो भाग किये और अपने अंश से चराचर जगत की रचना की। ब्रह्मा ने पुनः दस हजार वर्षों तक शिव की तपस्या की। तब नीललोहित शिव की ब्रह्मा के ललाट से पुनः उत्पत्ति हुई, तब ब्रह्मा ने उन नीललोहित की हाथ जोड़कर प्रार्थना की-
ब्रह्मा जी कहने लगे – हे सूर्य के समान अमित तेज वाले ! हे भव ! हे देव! आपको नमस्कार है। आप सर्व हो, क्षितरूप हो, ईशरूप हो, वायुरूप हो, सोमरूप हो, यजमान रूप हो, हे प्रभो! आपको नमस्कार है।
पितामह के इस रूप को जो पढ़ता है वह एक वर्ष में ही अष्टमूर्ति शिव की सायुज्यता (मोक्ष) को प्राप्त हो जाता है।
अष्टमूर्ति भगवान शिव की, भानु, अग्नि, चन्द्र, पृथ्वी, जल, वायु, यजमान और आकाश रूप वाली कही गई है। अष्टमूर्ति शिव के प्रसाद से ब्रह्मा ने अखिल जगत की रचना की। चराचर जगत के लय के सम्बन्ध में प्रजा की रचना के लिए ब्रह्मा ने तप किया था। बहुत समय तक जब कहीं कुछ नहीं देखा तो ब्रह्मा को क्रोध आया। क्रोध से ब्रह्मा के आँसू गिरे और आँसुओं से भूत प्रेत पिशाच उत्पन्न हुए। उनको देखकर ब्रह्मा ने अपनी आत्मा की निन्दा की तथा क्रोध में आकर अपने प्राणों का त्याग कर दिया। तब प्राणमय रुद्र अर्धनारीश्वर ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुए और शिव अपनी आत्मा को ग्यारह रूपों में बाँटते भये जो ग्यारह रुद्र हुए। आधे अंश से उमा भगवती को रचा जो लक्ष्मी, दुर्गा, रौद्री, वैष्णवी आदि नामों से कही गई है।
मरे हुए ब्रह्मा के लिए भगवान शिव ने प्राणों का दान दिया तब ब्रह्मा जी प्रसन्न होकर उठ पड़े। शिवजी बोले- हे जगत गुरु ब्रह्मा जी! मैंने तुम्हारे प्राण स्थापित कर दिए हैं, तुम उठो। ब्रह्मा शिवजी को देखकर बोले -हे महाराज ! आप अष्टमूर्ति तथा ग्यारह मूर्ति वाले कौन हो?
शंकर बोले- मुझे तुम परमात्मा समझो तथा यह माया को तुम अजा समझो। ये ग्यारह रुद्र हैं जो तुम्हारी रक्षा के लिए यहाँ आए हैं। हाथ जोड़कर गद्गद् वाणी से ब्रह्मा बोले- हे देव ! मैं दुखों से व्याप्त हूँ आप मुझे संसार से मुक्त करने में योग्य हो।
तब उमापति शंकर ब्रह्मा को आश्वासन देकर रुद्रों सहित वहीं अन्तर्ध्यान हो गए।
इन्द्र कहता है- हे शिलाद ! अयोनिज तथा मृत्यु हीन पुत्र दुर्लभ हैं। ब्रह्मा जी अयोनिज नहीं हैं तथा मृत्यु से रहित नहीं हैं। किन्तु रुद्र यदि प्रसन्न हो जायें तो वे मृत्युहीन और अयोनिज पुत्र दे सकते हैं, उनको कुछ भी दुर्लभ नहीं है। ब्रह्मा विष्णु तथा मैं अयोनिज और मृत्यु रहित पुत्र देने में असमर्थ हैं।
शैलादि बोले- इस प्रकार मेरे पिता शिलाद को कहकर इन्द्र अपने सफेद हाथी पर बैठकर चले गए।
क्रमशः शेष अगले अंक में..

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