राम काज पर काम काज के दुष्प्रभाव से बचें -: पं० भरत उपाध्याय

एक व्यक्ति हनुमानजी के मन्दिर गया उसको कोई सन्तान नहीं थी, उसने हनुमानजी से आराधना की, हे हनुमानजी! आपकी कृपा से सभी दुर्गम कार्य सुगम हो जाते है- “दुर्गम काज जगत के जेते सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते” कृपा करें मुझे एक सुन्दर सा बेटा अगर मिले तो मैं आपको हीरों का हार चढाऊं, पुजारी ने कहा कोई चिंता मत कीजिये हम आपकी ओर से अनुष्ठान करेंगे, पुजारी को भी लोभ था हीरे का हार चढेगा तो अपने को ही मिलेगा। चालीस दिन का पाठ किया, संयोग से, सौभाग्य से उनकी पत्नी गर्भवती हो गई, निश्चित समय के उपरांत इनको पुत्र रत्न पैदा हो गया, बेटे का नाम रखा हीरालाल, छोटे बच्चों को कोई हीरालाल नहीं बोले, सभी बोले ओ हीरा-हीरा, पुजारी को पता लगा कि सेठजी को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई, बडे खुश हुये कि अब तो जरूर हीरे का हार चढेगा, तीन महीने का बालक हो गया, पत्नी ने कहा चलो जी मन्दिर में पूजा कर आएं, मनौती तो पूरी हो गयी, सेठजी बोले रूक अभी बालक को थोडा और बड़ाहोने दे। दो साल का हो गया, तो पति ने कहा पाँच वर्ष का हो जाएगा तो मुण्डन के बाद चलेंगे, बालक पाँच वर्ष का हो गया तो पत्नी ने फिर कहा, हमने हनुमानजी के वहाँ जो बोला हुआ है वह पूरा करना है, देवता के सामने मनौती जो रखी जाती है वह पूरी की जाती है अन्यथा अशिष्ट हो सकता है, चलिए न अपने यहाँ कमी किस बात की है, इसी बालक के नाम पर एक हीरे का हार चढाने को कहा है तो वह चढा देते हैं, आदमी तो आदमी है जब तक काम पूरा नहीं होता प्रार्थना के लिए भाव होते हैं, काम पूरा होते ही प्रार्थना के और भाव हो जाते हैं। पत्नि ने बहुत आग्रह किया तो एक दिन तय हो गया, अच्छा चलो हनुमानजी को हीरे का हार चढाएं, पुजारी को भी समाचार मिल गया, सेठजी आ रहे हैं हीरे का हार चढाने, मन्दिर धोया, चोला चढाया, दीपक और अगरबत्ती जलाई, अब पूजा सब हो गयी, माथा टेक दिया बार-बार पत्नि भी देखे पुजारी भी देखे सेठजी के हीरो का हार, पत्नि ने कहा हीरे का हार चढाओ, लडके के गले में सुन्दर फूलों का हार पहनाकर ले गए थे और वह उतार कर हनुमानजी के चरणों में चढा दिया, बोले यह लो हीरे का हार, बोले क्या मतलब? बोले हीरा ही तो है लडका और इसी का हार तो मैं चढा रहा हूँ, गले की माला चढाकर चले गये, भजन में चतुराई, जीवन में चतुराई, दूसरे का पैसा कैसे अपनी जेब में आए इसी चतुराई में हम डूबे है, जो मन के विकारों को छोड़कर भजन में लगा दे वही मन चतुर है, हम लोग उसी को चतुर मानते हैं जो जैसे-तैसे पैसा कमा ले, हम उदाहरण देते हैं देखो वह कितना चतुर व समझदार हैं कहाँ से कहाँ पहुँच गया।
हनुमान गुणी चातुर का अर्थ है सब कुछ छूट सकता है किन्तु प्रभु की सेवा से प्रभु की भक्ति से, रावण को समझाया है हनुमानजी ने बड़ी चतुराई से, रावण किसी की बात सुनने को तैयार नहीं, पत्नी की, परिवार की सुनने को तैयार नहीं, मानस में तो संकेत है कि कुम्भकर्ण ने समझाया, मेघनाथ ने समझाया, उनकी भी सुनने को तैयार नहीं, हनुमानजी ने चारों प्रकार से रावण को समझाया साम, दाम, दण्ड, भेद। साम माने समझाकर,”विनती करहुँ जोरि कर रावण, सुनहु मान तजि मोर सिखावन” मन्दोदरी ने समझाया, विभीषण ने समझाया माल्यवंत, मारीच, कालनेमि, अंगदजी सभी ने समझाया, दाम यानि लोभ से समझाया! अरे रावण, “राम चरण पंकज उर धरहू, लंका अचल राजु तुम्ह करहू” नहीं माना, दण्ड से, भय से समझाया अगर तुम नहीं मानोगे तो “संकर सहस विष्णु अज तोही, सकहिं न राखि राम कर द्रोही” फिर तुमको ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी नहीं बचा पाएंगे, तुम रामद्रोह छोड दो और भेद से यानि कपट से भी समझा दिया। सज्जनों, हनुमानजी ने सारी लंका जलाकर राख कर दी केवल “एक विभीषण, कर गृह नाहीं” रावण और विभीषण में भेद डाल दिया और परिणाम यह हुआ कि अंत में विभीषण रावण को छोड़कर राम की शरण में आ गया, वैसे इसमें बुराई नहीं है, अज्ञानतावश, मानसिक कमजोरी के कारण अगर कोई दुर्जन के चंगुल में सज्जन फँस गया तो येन-केन प्रकारेन दुर्जन के चंगुल से निकालकर परमात्मा के सम्पर्क में ले आना कपट नहीं है बल्कि नीति है तो दुर्जन से सज्जन को हनुमानजी ने दूर कर दिया। रावण को जब यह पता लगा कि पूरी लंका जल गयी केवल विभीषण का घर बचा है तो रावण का माथा उसी समय ठनक गया था कि यह विभीषण लगता है कि इस वानर से अन्दर ही अन्दर मिला हुआ है, इसी ने उसे मृत्युदण्ड से बचाया है, “नीति विरोध न मारिय दूता” इसी ने बोला था, “आन दण्ड कछु करिअ गोसाँई” और उसी आग को रावण हृदय में लिए बैठा रहा, अंत में रावण ने विभीषण पर लात का प्रहार कर दिया, जा उसी तपस्वी की शरण में जा, तो साम, दाम, दण्ड, भेद चारों नीतियों का जो जीवन में पालन करता हो वह चतुर नहीं अति चतुर है।
हनुमानजी महाराज रामकाज करने को आतुर हैं, “रामकाज करबे को आतुर” और हम सब कामकाज करने को आतुर हैं, जब देखो यही सुनने को मिलता है, बड़े जरूरी काम से जा रहा हूँ, कहाँ गए थे? बड़े जरूरी काम से, कहाँ जा रहे हो, बड़े जरूरी काम से, भैया न रात न दिन, न सुबह न शाम चौबीस घण्टे काम ही काम, श्रीहनुमानजी रामकाज में और हम लोग कामकाज में, श्रीहनुमानजी रामकाज करिबे को आतुर और हम सभी कामकाज करिबे को आतुर, देखो रामकाज और कामकाज ये कोई विरोधाभाषी नहीं इन दोनों में कोई विरोध नहीं है।
दोनों बिल्कुल एक है कई बार हम लोग कहते हैं काम काज में डूबे हैं, राम काज कैसे कर पाएंगे इनको अलग अलग मत समझिए, भजन करने में सब कुछ छोड़कर बैठ जाने को भजन नहीं कहा है, यह तो आलस्य है कुछ काम नहीं है तो कहते हैं कि हम भजन कर रहे हैं, हम कई सज्जनों को देखते हैं कि वे आराम कर रहे हैं कहते हैं हम तो अनुष्ठान कर रहे हैं, बढिया बढिया माल खा रहे हैं कहते हैं कि हमारा तो उपवास चल रहा है, हमारा व्रत चल रहा है, यह चतुराई हैं यह चालाकी है, भजन माने पलायनवाद नहीं, आलस्य नहीं है, सब कुछ छोड़कर किसी कमरे में कैद हो जाना भजन नहीं है, भजन का अर्थ है सब कुछ भगवान् से जोड़ देना यही रामकाज है।

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