“जरासंध वह योद्धा थे, जिन्होंने अधीनता को कभी स्वीकार नहीं किया और अंत तक अपने सम्मान की रक्षा की…..
नालंदा दर्पण डेस्क। प्राचीन भारत के महायोद्धाओं में एक ऐसा नाम जिसकी वीरता और पराक्रम का उल्लेख महाभारत और पुराणों में मिलता है- मगध सम्राट जरासंध। वे केवल एक शक्तिशाली सम्राट ही नहीं, बल्कि एक कुशल योद्धा, रणनीतिकार और अपने काल के सबसे प्रभावशाली राजाओं में से एक थे। किंतु इतिहास में उनकी कहानी प्रायः पांडवों और श्रीकृष्ण के पराक्रम के सामने धुंधली पड़ जाती है।
जरासंध का जन्म और बचपनः जरासंध का जन्म बृहद्रथ वंश में हुआ था। उनके पिता मगध के राजा बृहद्रथ थे, जो एक शक्तिशाली सम्राट थे। किंतु संतानहीन होने के कारण वे चिंतित रहते थे। ऋषि चंडकौशिक की कृपा से उन्हें एक फल मिला। जिसे उनकी दो पत्नियों ने आधा-आधा खा लिया। इस कारण दो हिस्सों में बंटा एक विचित्र नवजात शिशु उत्पन्न हुआ। राजा और रानियां इसे देख कर भयभीत हो गए और उसे जंगल में छोड़ दिया।
इसी समय जंगल में रहने वाली एक राक्षसी ‘जरा’ को वह शिशु मिला। उसने अपने तपोबल से दोनों टुकड़ों को जोड़कर एक संपूर्ण बालक बना दिया। जब यह खबर राजा तक पहुंची, तो उन्होंने आनंदित होकर इस बालक को अपनाया और राक्षसी जरा के नाम पर उसका नाम ‘जरासंध’ रखा। यह घटना भविष्य में उनके जीवन का महत्वपूर्ण पहलू बन गई।
जरासंध का पराक्रम और साम्राज्य विस्तारः जरासंध बाल्यावस्था से ही अद्वितीय शक्ति के धनी थे। वे एक महायोद्धा बने और अपने गुरु शुक्राचार्य के सान्निध्य में युद्धकला के गूढ़ रहस्यों को सीखा। उन्होंने मगध साम्राज्य को एक अपराजेय शक्ति बना दिया और उत्तर से दक्षिण तथा पूर्व से पश्चिम तक कई राजाओं को पराजित कर अपने अधीन कर लिया।
उनकी वीरता का सबसे बड़ा प्रमाण यह था कि उन्होंने सत्रह बार श्रीकृष्ण, बलराम और यादवों के खिलाफ युद्ध किया। किंतु हर बार श्रीकृष्ण ने युद्ध को रणनीति से टाल दिया। अंततः श्रीकृष्ण ने यादवों की राजधानी मथुरा से हटाकर द्वारका बसाने का निर्णय लिया। जिससे जरासंध का वर्चस्व मथुरा पर समाप्त हो सके।
राजसूय यज्ञ और जरासंध का विरोधः जब पांडवों ने अपनी खोई हुई शक्ति प्राप्त कर इंद्रप्रस्थ में राजसूय यज्ञ करने का निश्चय किया तो उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती जरासंध थे। क्योंकि जब तक जरासंध जीवित थे, तब तक कोई भी राजा संपूर्ण आर्यावर्त का सम्राट नहीं बन सकता था।
युधिष्ठिर की सलाह पर श्रीकृष्ण, भीम और अर्जुन ब्राह्मण वेश में मगध की राजधानी गिरिव्रज (वर्तमान बिहार का राजगीर) पहुंचे। उन्होंने जरासंध को द्वंद्व युद्ध के लिए ललकारा। चूंकि जरासंध केवल योद्धाओं से युद्ध करता था। इसलिए उसने भीमसेन के साथ मल्लयुद्ध स्वीकार कर लिया।
मल्लयुद्ध- भीम और जरासंध का संघर्षः जरासंध और भीम के बीच तेईस दिन तक भयंकर युद्ध हुआ। दोनों महायोद्धा समान बलशाली थे। किंतु जब भीम जरासंध को घायल कर देते तो वह पुनः स्वस्थ हो जाता। क्योंकि वह दो टुकड़ों से जुड़ा हुआ था।
अंततः श्रीकृष्ण ने छल करते हुए भीम को संकेत दिया कि जरासंध को दो भागों में चीरकर अलग-अलग दिशाओं में फेंकना होगा। जैसे ही भीम ने यह किया और जरासंध का पुनर्जन्म असंभव हो गया और उसका अंत हो गया।
जरासंध का योगदान और विरासतः जरासंध केवल एक योद्धा नहीं, बल्कि एक कुशल प्रशासक भी थे। उन्होंने मगध को महाशक्ति बनाया और आर्यावर्त की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके निधन के बाद उनका पुत्र सहदेव मगध का राजा बना। वह बाद में युधिष्ठिर के अधीन रहा।
उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे मृत्यु से कभी भयभीत नहीं हुए। उन्होंने धर्म और क्षत्रिय धर्म के सिद्धांतों का पालन किया और अपने राज्य के लिए अंतिम क्षण तक लड़े।
वेशक जरासंध की की यह कहानी हमें यह सिखाती है कि हर युग में ऐसे वीर योद्धा होते हैं, जिनकी कहानियाँ इतिहास के पन्नों में दब जाती हैं, किंतु उनका प्रभाव अमिट रहता है। यदि जरासंध न होते तो शायद महाभारत का युद्ध अलग रूप लेता। उनकी वीरता और बलिदान सदैव स्मरणीय रहेगा।
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