✍️ नालंदा दर्पण / मुकेश भारतीय। व्यंग्य और आलोचना का यदि कोई आधिकारिक गूढ़ अर्थ निकालें तो वह समाज का दर्पण नहीं, बल्कि एक्स-रे मशीन होना चाहिए। जो भीतर तक झांककर सच्चाई को उजागर कर सके। पर समस्या यह है कि आजकल व्यंग्य के नाम पर चल रही कलम ज़्यादातर काजल की तरह आँखों को सुशोभित कर रही है, न कि किरचों की तरह चुभ रही है। ऐसे में आलोचना का स्थान कहां होना चाहिए?
अब देखिए, आलोचना और व्यंग्य का रिश्ता वैसा ही है जैसे सोशल मीडिया और फेक न्यूज़ दोनों साथ-साथ चलते हैं, लेकिन जब ज़रूरत होती है तो एक-दूसरे पर दोषारोपण भी कर देते हैं। व्यंग्य का जो अंग है, वह ‘डंक’ होना चाहिए! तबसे इस ‘डंक’ को लेकर व्यंग्यकारों के सिर में वैसे ही दर्द होने लगा जैसे किसी लेखक की किताब को ‘अच्छा प्रयास’ कहकर आलोचक उसे साहित्यिक शून्यता में धकेल देता है।
व्यंग्य में आलोचना होनी चाहिए या नहीं, यह प्रश्न ऐसा ही है, जैसे यह पूछना कि राजनीति में नैतिकता होनी चाहिए या नहीं। आदर्श रूप से होनी चाहिए, लेकिन व्यवहारिकता में उसका कोई अता-पता नहीं होता। वैसे भी हमारे देश में आलोचना की जगह निंदा ने ले ली है और व्यंग्य की जगह हंसी-ठिठोली।
अब व्यंग्य ऐसा होना चाहिए, जो सड़ा-गला निकाल फेंके या ऐसा कि पढ़ते ही पेट पकड़कर हंसी आए। इस पर बहस ठीक वैसी ही है जैसे यह सोचना कि गर्मियों में आम खाना चाहिए या नहीं!
परसाई जी ने ‘व्यंग्य को स्पिरिट कहा’ और आज वही स्पिरिट लोग महंगी बोतलों में बंद कर सिर्फ शनिवार की रात को खोलते हैं। उनका व्यंग्य समाज का एक्स-रे था। आज का व्यंग्य सेल्फी फिल्टर हो गया है। दिखता कुछ और है, हकीकत कुछ और। आज के व्यंग्यकार की हालत ऐसी है, जैसे बिना ईंधन के इंजन चालू तो है, लेकिन चल नहीं रहा।
बड़ी बात यह है कि आलोचक कहां हैं? व्यंग्यकारों को आलोचकों से ज़्यादा ‘वाह-वाह’ करने वालों की ज़रूरत है। आलोचना का डर हो तो कलम कांपने लगती है और जब तक आलोचना नहीं होगी, व्यंग्य में धार नहीं आएगी।
तो सवाल यह नहीं कि व्यंग्य में आलोचना होनी चाहिए या नहीं। सवाल यह है कि आज के तथाकथित व्यंग्यकारों में आलोचना सहने का धैर्य बचा भी है या नहीं? जब तक इसका जवाब नहीं मिलता, तब तक व्यंग्य और आलोचना का रिश्ता वैसे ही उलझा रहेगा। जैसे बिल्ली के गले में घंटी बांधने का सवाल!
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