मां नर्मदा के पवित्र तट पर गोंडवाना प्रदेश में भक्त चतुर्भुज का जन्म हुआ था। उस प्रदेश में जनता कालीजी की उपासना करती थी और पशुबलि से देवी को प्रसन्न करने में ही अपनी समस्त साधना और उपासना की फलसिद्धि समझती थी। भयंकर पशुबलि ने भक्त चतुर्भुज के सीधे-सादे हृदय को क्षुब्ध कर दिया। वे परम भागवत थे। उन्होंने धीरे-धीरे लोगों में भगवान् की भक्ति का प्रचार करना आरम्भ किया। जनता को अपनी मूर्खताजन्य पशुबलि और गलत उपासना-पद्धति की जानकारी हो गयी। भक्त चतुर्भुज के निष्कपट प्रेम और उदार मनोवृत्ति ने जनता के मन में उनके प्रति सहानुभूति की भावना भर दी, उनके दैवी गुणों का प्रभाव बढ़ने लगा।भक्त चतुर्भुज नित्य भागवत की कथा कहते थे और सन्त-सेवा में शेष समय का उपयोग करते थे। भागवती कथा की सुधा-माधुरी से भक्ति की कल्पलता फूलने-फलने लगी। लोग अधिकाधिक संख्या में उनकी कथा में आने लगे। भक्त का चरित्र ही उनके सत्कार्य के लिये विशाल क्षेत्र प्रस्तुत कर देता है। वे अपने प्रचार का ढिंढोरा नहीं पीटा करते। एक समय इनकी कथा में एक उचक्का चोर आया। उसके पास चोरी का धन था। सौभाग्य से उसमें वह व्यक्ति भी उपस्थित था, जिसके घर उसने चोरी की थी। कथा-प्रसंग में चोर ने सुना कि ‘जो भगवत्-मन्त्र की दीक्षा लेता है, उसका नया जन्म होता है।’ चोर भक्त का दर्शन कर चुका था, भगवान् की कथा-सुधा का माधुर्य उसके हृदय-प्रदेश में पूर्णरूप से प्रस्फुटित हो रहा था, चोरी के कुत्सित कर्म से उसका सहज ही उद्धार होने का समय सन्निकट था। उसने चोरी का धन कथा की समाप्ति पर चढ़ा दिया। वह निष्कलंक, निष्कपट और पापमुक्त हो चुका था, भगवान् का भक्त बन चुका था। धनी व्यक्ति ने उसे पकड़ लिया, उसपर चोरी का आरोप लगाया, पर उसका तो वास्तव में नया जन्म हो चुका था उसने हाथ में जलता फार लेकर कहा कि इस जन्म में मैंने कुछ नहीं चुराया है। बात ठीक ही तो थी, अभी कुछ ही देर पहले उसे नया जन्म मिला था। धनी व्यक्ति बहुत लज्जित हुआ। राजा ने सन्त पर चोरी का आरोप लगाने के अपराध में धनी को मरवा डालना चाहा, पर सन्त तो परहित-चिन्तन की ही साधना में रहते हैं। चोर ने, जो पूर्ण सन्त हो चुका था, सारी बात स्पष्ट कर दी। भक्त चतुर्भुज की कथा का प्रभाव उस पर ऐसा पड़ा था कि धनी व्यक्ति को दण्डित होते देखकर उसके नयनों से अश्रुपात होने लगा, राजा को उसने अपनी साधुता और स्पष्टवादिता से आकृष्ट कर लिया। राजा के मस्तिष्क पर चतुर्भुज की कथा का अमिट रंग चढ़ चुका था; वह भी उनका शिष्य हो गया और भागवत धर्म के प्रचार में उसने उनको पूरा-पूरा सहयोग दिया।एक बार कुछ सन्त इनके खेत के निकट पहुँच गये। चने और गेहूँ के खेत पक चुके थे, सन्तों ने बालें तोड़कर खाना आरम्भ किया। रखवाले ने उन्हें ऐसा करने से रोका और कहा कि ‘ये भक्त चतुर्भुज के खेत हैं।
सन्तों ने कहा–‘तब तो हमारे ही खेत हैं।’ रखवाला जोर-जोर से चिल्लाने लगा कि ‘साधु लोग बालें तोड़-तोड़कर खा रहे हैं और कहते हैं कि ये खेत तो हमारे ही हैं।भक्त चतुर्भुज के कान में यह रहस्यमयी मधुर बात पड़ी ही थी कि उनके रोम-रोम में आनन्द का महासागर उमड़ आया। उन्होंने अपने सौभाग्यकी सराहना की कि ‘आज सन्तों ने मुझको अपना लिया, मेरी वस्तु को अपनाकर मेरी जन्म-जन्म की साधना सफल कर दी।’
उनके नेत्रों में प्रेमाश्रु छा गये, वे गुड़ तथा कुछ मिष्ठान्न लेकर खेत की ओर चल पड़े। सन्तों की चरण-धूलि मस्तक पर चढ़ाकर अपनी भक्तिनिष्ठा का सिन्दूर अमर कर लिया उन्होंने।
भक्ति की निष्ठा भरपूर थी भक्त चतुर्भुज में -: पं० भरत उपाध्याय
