गृहस्थ धर्म में परमार्थी पराक्रमी होता है :- पं-भरत उपाध्याय

महाभारत में एक कथा है कि एक बार अर्जुन और सुधंवा के बीच भयंकर द्वंद्व युद्ध छिड़ा। दोनों महाबली थे और युद्धविधा में पारंगत भी। घमासान लड़ाई चली। विकरालता बढ़ती जा रही थी,लेकिन निर्णायक स्थिति नहीं आ रही थी। अंतिम बाजी इस बात पर अड़ी कि फैसला आखिरी तीन बाणों में होगा। कृष्ण को भी अर्जुन की सहायता के लिए आना पड़ा। उन्होंने हाथ में जल लेकर संकल्प किया। “गोवर्धन पर्वत उठाने और ब्रज की रक्षा करने का पुण्य मैं अर्जुन के बाण के साथ जोड़ता हूं।” इससे आग्नेयास्त्र और भी प्रचंड हो गया। काटने का सामान्य उपाय हल्का पड़ रहा था तो सुधंवा ने भी संकल्प किया। “एक पत्नीव्रत पालने का मेरा पुण्य भी इस अस्त्र के साथ जुड़े।” दोनों अस्त्र आकाश मार्ग में चले। दोनों नेएक-दूसरे का बीच में काटने का प्रयत्न किया। अर्जुन का अस्त्र कट गया और सुधंवा का बाण आगे बढ़ा किंतु निशाना चूक गया। दूसरा अस्त्र उठाया गया। कृष्ण ने कहा – ‘गज को ग्राह से और द्रौपदी की लाज बचाने का मेरा पुण्य अर्जुन के बाण के साथ जुड़े।” उधर सुधंवा ने कहा – “मैंने नीतिपूर्वक ही उपार्जन किया और चरित्र की किसी पक्ष में त्रुटि नहीं आने दी हो तो इसका पुण्य इस अस्त्र के साथ जुड़े।” इस बार भी दोनों अस्त्र आकाश में टकराए और सुधंवा के बाण से अर्जुन का तीर आकाश में ही कटकर धराशायी हो गया। तीसरा अस्त्र शेष था। इसी पर अंतिम निर्णय निर्भर था। कृष्ण ने कहा – ‘मेरे बार-बार अवतार लेकर धरती का भार उतारनेका पुण्य अर्जुन के बाण के साथ जुड़े।” दूसरी ओर सुधंवा ने कहा – ”यदि मैंने स्वार्थ का क्षणभर चिंतन किए बिना मन को निरंतर परमार्थ में निरत रखा हो तो मेरा पुण्य बाण के साथ जुड़े।” इस बार भी अर्जुन के तीर को काट सुधंवा का बाण विजयी हुआ। दोनों पक्षों में कौन अधिक समर्थ है,इसकी जानकारी देवलोक तक पहुंची तो देवतागण सुधंवा पर आकाश से पुष्प बरसाने लगे। युद्ध समाप्त कर दिया गया। भगवान कृष्ण ने सुधंवा की सराहना करते हुए कहा – “नरश्रेष्ठ,तुमने सिद्ध कर दिया कि नैष्ठिक गृहस्थ साधक किसी भी तपस्वी से कम नहीं होता।”पूरी निष्ठा और सही ढंग से साधा गया गृहस्थ धर्म किस प्रकार फलता है..!!

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