पुराणों में यह कथा आती है कि तीर्थराज यह सोचकर चिंतित हुए कि यदि अनगिनत पापी आकर अपना पाप मुझमें धोते रहे, तो सारी मलिनता मुझमें ही आ जायेगी। उनकी समस्या का समाधान यह कहकर किया गया कि केवल पापी ही तो त्रिवेणी में स्नान नहीं करेंगे, साधु जनों के स्नान करने से आपके समस्त पाप नष्ट हो जाएँगे। ‘तीर्थराज’ ने श्रीभरत को ‘साधु’ कहकर इसी ओर इंगित किया। तीर्थराज का तात्पर्य यह था कि जहाँ अन्य तीर्थयात्रियों को मैं देता हूँ, वहाँ साधुओं से लेते रहना ही मेरा स्वभाव है। आप जैसे साधु यदि मुझसे माँगने लगेंगे तो फिर मैं किससे याचना करूँगा ? प्रेम-परिप्लुत अन्तःकरण से ‘रामसिय- रामसिय‘ कहते हुए श्री भरत ने तीसरे पहर तीर्थराज प्रयाग में प्रवेश किया। नाम स्मरण में जिस क्रम से उन्होंने नामोच्चारण किया वह परम्परा के प्रतिकूल जान पड़ता है। शक्ति के पश्चात ही शक्तिमान् का स्मरण करना साधन- परम्परा में विहित है। किन्तु श्री भरत ‘राम-सिय, राम-सिय‘ का उच्चारण करते हुए चल रहे थे। इस स्मृति में विधि के स्थान पर भावना की प्रधानता है। वन पथ में चलते हुए भी श्री भरत केवल जिह्वा से उनके नाम का ही उच्चारण नहीं करते हैं, अपितु हृदय में वे निरंतर ध्यान करते हुये चल रहे हैं। इस समय उनके भाव-राज्य में प्रभु के वन-पथ की झाँकी है। जिस क्रम से पथिक रामभद्र चल रहे थे, यह स्मरण उसी क्रम-परम्परा के अनुकूल है।
तात भरत तुम सब विधि साधू:- पं० भरत उपाध्याय
