सन्त की भूमिका दूरी को मिटाने का प्रयास करना है। हमारे जीवन में जो*भक्ति तथा भगवान दूर हो गए हैं, सन्त*का कार्य यही है कि किसी तरह जो*श्री सीता और श्रीराम दूर हो गए हैं, उन दोनों को मिलाएँ, या यों कहा लीजिए कि दूरी का भ्रम मिटाएँ। १/२ भगवान् श्री राम अवतरित हुए वे निराकार से साकार बने । साकार में भी मनुष्य बने और मनुष्य बनकर वे अयोध्या से लेकर लंका तक की यात्रा करते हैं, इस प्रकार सर्वत्र यही संकेत उनके द्वारा कई रूपों में किया गया है। लंका से लौटकर हनुमान जी, श्री सीताजी की विपत्ति का वर्णन करते हैं, किन्तु प्रश्न यह है कि श्री सीताजी को विपत्ति तत्त्वत: सही है क्या ? जब यह कहा जाता है कि श्री सीताजी और श्रीराम जल तथा तरंग की तरह अभिन्न हैं या कहा जाता है कि वाणी और अर्थ की तरह अभिन्न हैं — गिरा अरथ जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न। बन्दउँ सीताराम पद जिन्हहिं परम प्रिय खिन्न। १/१८ अतः तत्त्वत: जिनमें दूरी नहीं है, जिन्हें अलग किया ही नहीं जा सकता, उनके बीच इतनी बड़ी दूरी हो गई कि प्रभु उन्हें वन में चारों ओर ढूँढ़ रहे हैं। उधर जनकनन्दिनी श्री सीता बन्दिनी के रूप में अशोक-वाटिका में वृक्ष के नीचे विलाप कर रही हैं, फिर हनुमानजी द्वारा उस दूरी को मिटाने का प्रयत्न होता है । मानो जीवन के इसी सत्य को जगज्जननी श्री सीता तथा भगवान राम ने समझाया कि भले ही भगवान राम तथा श्री सीता जी अभिन्न हों पर रावण के कारण भिन्नता और दूरी जान पड़ती है । इसे आप यही समझ लें कि जब हमारे जीवन में रावण आ जाएगा तब दूरी ही दूरी दिखाई देगी, अभिन्नता का बोध नहीं होगा। जब यह कहा जाता है कि हनुमान जी ने दूरी मिटाने की चेष्टा की तो इसका अर्थ क्या है ? एक ओर तो यह कहा जाता है कि ईश्वर सर्वत्र हैं, परन्तु प्रश्न यह है कि जब वह प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में हैं तो फिर सन्तों की इतनी महिमा का क्या अर्थ है ? सन्त की क्या भूमिका है ? तो इसका उत्तर यही है कि हनुमान जी सन्त हैं तथा सन्त की भूमिका दूरी को मिटाने का प्रयास करना है। हमारे जीवन में जो भक्ति तथा भगवान दूर हो गए हैं, सन्त का कार्य यही है कि किसी तरह जो श्री सीताजी और श्रीरामजी दूर हो गए हैं, उन दोनों को मिलाएँ, या यों कह लीजिए कि दूरी का भ्रम मिटाएँ। श्री सीताजी की विपत्ति का वर्णन जब हनुमानजी ने किया तो प्रभु ने एक बड़ा अटपटा प्रश्न करते हुए कहा – ‘हनुमान ! तुम जो कुछ कह रहे हो वह तो बहुत आश्चर्यजनक बात है, क्योंकि सन्त और सारे शास्त्र कहते हैं कि भगवान का भजन करने वालों पर विपत्ति नहीं आती। एक ओर तो तुम यह कह रहे हो कि सीताजी लंका में निरन्तर मेरे नाम का जप कर रही हैं, और साध ही तुम उनकी विपत्ति भी सुना रहे हो। क्या ये दोनों बातें विरोधी नहीं है ? प्रभु ने पूछा — ‘बचन कायँ मन मम गति जाही। सपनेहूँ बुझिअ विपति कि ताही।।’ ५/३१-२
किन्तु इस प्रश्न का उत्तर तो हनुमान जी जैसा सन्त ही दे सकते थे। हनुमान जी ने तुरत कहा – ‘प्रभु ! अगर श्री सीताजी की दृष्टि में सम्पत्ति और विपत्ति का वह अर्थ होता तब तो कोई विपत्ति थी ही नहीं, क्योंकि सौ कोस की सोने को लंका में रावण एक दृष्टि डालने की प्रार्थना कर रहा है, अपनी सब रानियों को दासी बनाने के लिये व्यग्र है, इसलिए उनके साथ वह विपत्ति नहीं है जिसे संसार के लोग विपत्ति समझते हैं। हनुमानजी ने कहा- महाराज ! *कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तब सुमिरन भजन न होई।। ५/३१/३ उनकी विपत्ति यही है कि वे आपकी सेवा का सौभाग्य नहीं पा रही हैं। इसके बाद बहुत बढ़िया बात आई। जब इतनी बड़ी विपत्ति सुनाई गई तो प्रभु ने सोचा – क्या करना चाहिए। यद्यपि प्रभु तो सर्वशक्तिमान हैं। वे वहीं बैठे-बैठे भी यदि एक बाण लंका की ओर भेज देते तो रावण का बध हो जाता, और वे चाहते तो संकल्प से ही रावण को मिटा सकते थे, किन्तु हनुमान जीनेजो प्रस्ताव किया वह भी विचित्र ही था।* उन्होंने कहा – महाराज ! आप कृपा कीजिए, श्री सीता जी की विपत्ति इतनी बड़ी है कि एक-एक निमिष कल्प के समान व्यतीत हो रहा है। निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।* ५/३१ प्रभु ने कहा ठीक है – ‘यदि इतनी बड़ी विपत्ति है तो मैं उसे तत्काल दूर किए देता हूँ।’ पर हनुमानजी एक ओर तो कहते जा रहे हैं कि बहुत बड़ी विपत्ति है और जो प्रस्ताव कर रहे हैं वह है – ‘बेगि चलिय’ शीघ्रता से चलिए अर्थात् पैदल चलिए। बड़ी अद्भुत बात है जो कार्य यहाँ बैठे-बैठे हो सकता है उसके लिए हनुमान जी कहते हैं – ‘बेगि चलिय’, जल्दी तो चलिए पर जल्दी करने के बाद भी ईश्वरीय चमत्कार के दर्शन मत कराइए अपितु पैदल ही चलिए। जब पहली बार भगवान श्री राघवेन्द्र तथा श्री हनुमानजी महाराज का मिलन हुआ तो हनुमानजी ने दोनों को अपने कन्धे पर बैठा लिया था, परन्तु पढ़कर आश्चर्य सा होता है कि उसके बाद लंका तक की यात्रा में हनुमानजी भगवान् श्रीराम को फिर कन्धे पर बैठा कर नहीं ले गए, क्या हो गया है हनुमानजी को ? हनुमानजी का तात्पर्य था – प्रभु आप तो मुझे सौभाग्य दे ही सकते हैं। आपकी कृपा से मैं आपको कन्धे पर बैठा ही सकता हूँ। पर जब आप श्रीसीता जी को पाने के लिए पैदल चलेंगे तब पता चलेगा कि आप श्री किशोरी जी को पाने के लिए कितनी साधना करते हैं। संसार वाले तो भक्ति के लिए साधना करते ही हैं पर आप भी तो श्री सीताजी को पाने के लिए साधना कीजिए, इसीलिए आपको वहाँ पैदल चलना है तथा पैदल चलने के साथ-साथ लड़ना भी है। प्रभु! युद्ध कीजिए, संघर्ष कीजिए, रावण का बध कीजिए तब श्री सीताजी को लाइए। यही है साधना की वह यात्रा जिसके अन्त में रावण, कुंभकर्ण तथा मेघनाद का बध होता है। इसके बाद श्री सीता जी और श्री राम का मिलन हुआ। इसका सीधा सा अर्थ यही है कि जब तक रावण, मेघनाद तथा कुंभकर्ण रूपी राक्षस हमारे आपके जीवन में बने हुए हैं तब तक हमें श्री सीताजी तथा भगवान् श्रीराम के मिलन का अनुभव नहीं होगा (ईश्वर से अभिन्नता का अनुभव नहीं होगा) यही सन्त की भूमिका है।
श्री हनुमान जी सर्वश्रेष्ठ संत हैं -: पं० भरत उपाध्याय
